' पेड न्यूज ' की लोकतंत्र की चौथी सत्ता को चुनौती

' पेड न्यूज ' की लोकतंत्र की चौथी सत्ता को चुनौती ,
चाहकर भी लाचार है सरकार , सारे उपाय हुए बेकार
राज्यसभा सदस्यों की पेड न्यूज़ पर रोक लगाने की मांग पर इस बार केन्द्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बड़ी साफ़गोई का परिचय देते हुए कहा कि सरकार के इस क़दम को बोलने की आज़ादी में दखल माना जा सकता है | उन्होंने कहा कि ' हम सभी पेड न्यूज़ के शिकार हैं | विज्ञापन करना हर किसी का अधिकार है , लेकिन जब सरकार सीमा से अधिक विज्ञापन करती है , तो विज्ञापन और रिश्वत में अंतर की सीमा कहाँ रह जाती है | ... हम सब इस समस्या से छुटकारा चाहते हैं |' राज्यसभा सदस्यों ने गत 10 मई को 'पेड न्यूज' पर चिंता जताई और इस मुद्दे को सुव्यवस्थित बहस के लिए उठाने का फैसला किया। राज्यसभा में विभिन्न दलों के सदस्यों ने पेड न्यूज़ के बढ़ते चलन पर चिंता जताते हुए कहा कि यह पाठकों को गुमराह करता है | भाजपा नेता विजय गोयल ने शून्य काल में यह मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि पेड न्यूज से मीडिया की विश्वसनीयता प्रभावित हुई है। कांग्रेस नेता आनंद शर्मा, जनता दल (यूनाइटेड) के नेता शरद यादव और के.सी. त्यागी और मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेता सीताराम येचुरी सहित विभिन्न दलों के नेताओं ने दलगत भावना से ऊपर उठकर उनका समर्थन किया। अभी चंद दिनों पहले पेड न्यूज को ‘लोकतंत्र के लिए कैंसर’ करार देते हुए राज्यसभा में मनोनीत सदस्य भाजपा नेता सुब्रहमण्यम स्वामी ने इस मुद्दे पर सदन में चर्चा कराये जाने की मांग की थी | उन्होंने कहा कि सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी संसद की स्थायी समिति ने मई 2013 में इसी विषय पर अपनी रिपोर्ट दी थी , जिसकी सिफारिशों को लागू किए जाने की आवश्यकता है | उन्होंने एक निजी समाचार चैनल में दिखायी गयी खबर के हवाले से कहा कि अगस्ता वेस्टलैंड सौदे को लेकर कंपनी एवं बिचौलिये के बीच समझौता हुआ था , जिसमे कथित तौर पर कहा गया है कि बिचौलिया कंपनी के रक्षा सौदे के बारे में प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अनुकूल खबरें सुनिश्चित की जाएंगी। वास्तव में पेड न्यूज़ पाठकों और दर्शकों के साथ बड़ा धोखा है | अतः लंबे समय से सूचना और प्रसारण मंत्रालय पेड न्यूज के चलन पर रोकथाम के लिए एक व्यापक प्रणाली की योजना बना रहा है और उसने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम तथा प्रेस कौंसिल अधिनियम में संशोधन से जुड़े मुद्दों के अध्ययन के लिए कानून मंत्रालय को नोट भेजे हैं। सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ द्वारा रखे गये एक वक्तव्य में मंत्रालय ने 13 अगस्त 2015 को कहा कि कानून मंत्रालय के अध्ययन के आधार पर विषयों पर आगे और विचार किया जाएगा तथा जरूरत पड़ने पर कैबिनेट की मंजूरी के लिए प्रस्ताव दिया जाएगा।
कानून मंत्रालय को पेड न्यूज को दंडनीय चलन बनाने के लिहाज से जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के प्रस्ताव पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय को नोट देने को कहा गया है।पेड न्यूज की शिकायतों पर फैसला करने के लिए तथा मामले में अंतिम निर्णय के लिए भारतीय प्रेस परिषद (पीसीआई) को पूरे अधिकार देने के मामले में भी कानून मंत्रालय से अध्ययन को कहा गया है। बयान में कहा गया है कि ‘प्रेस और पुस्तकों का पंजीकरण तथा प्रकाशन विधेयक’ पर सूचना प्रौद्योगिकी पर स्थाई समिति की सिफारिशों के आधार पर पेड न्यूज की घटनाओं की रोकथाम के लिए विधेयक में प्रावधानों को शामिल करने का प्रस्ताव किया गया है। पिछले वर्ष एक संसदीय पैनल ने पेड न्यूज, रिपोर्टिंग की गुणवत्ता और मीडिया के लिए तय नियमों से जुड़े मुद्दों पर चर्चा भी की थी | बैठक में समिति के सदस्यों ने खबरों की रिपोर्टिंग की गुणवत्ता से जुड़े मुद्दे उठाए। भारतीय प्रेस परिषद, इसके प्रभाव और संगठन पर भी चर्चा की गई।इस समिति की अध्यक्षता लोकसभा के सांसद अनुराग ठाकुर के हाथ में है। इसमें वरिष्ठ सांसद लाल कृष्ण अडवाणी समेत कई अनुभवी सदस्य हैं। इस बैठक में जिस अन्य पहलू पर संभवत: चर्चा की गई, वह खबरों की रिपोर्टिंग के खिलाफ शिकायतों के निवारण की प्रणाली से जुड़ा था। इस बैठक में एक यह सुझाव निकलकर आया कि भारतीय प्रेस परिषद के फोन नंबर और ईमेल का पता भी अखबार में छापा जाना चाहिए। दूसरी ओर विधि आयोग के एक परामर्श पत्र पर राय देने वालों में से अधिकतर ने पेड न्यूज को चुनावी अपराध बनाने की वकालत की है | मीडिया के लिए स्व-नियमन की पैरवी करते हुए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहना है कि स्वतंत्रता के साथ बड़ी जिम्मेदारी भी आती है तथा पेड न्यूज, मीडिया ट्रायल और फर्जी स्टिंग ऑपरेशन जैसे मुद्दों का भी इसी क्रम में निवारण करना होगा। प्रसाद ने कहा कि वे सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए आईटी अधिनियम के प्रावधानों के अत्यधिक इस्तेमाल के खिलाफ हैं। मीडिया में भ्रष्टाचार का रोग बढ़ता ही जा रहा है | 
पेड न्यूज़ के चलन ने विश्वसनीयता का संकट तो पैदा ही किया है , किरदार का भी संकट पैदा कर दिया है | मीडिया में अच्छे किरदार के भी लोग हैं , लेकिन इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है , जो गंभीर चिंता का विषय है | यह भी सच है कि मीडिया के भ्रष्टाचार से जुड़े मामले कभी - कभार ही उजागर होते हैं |  दिसम्बर 2012 में रिश्वतखोरी के गंभीर मामले में' ज़ी न्यूज़ ' के दो नामचीन संपादकों - सुधीर चौधरी और समीर आहलूवालिया की गिरफ़्तारी ने भारतीय प्रेस में आए किरदार के संकट को एक बार फिर बेनक़ाब कर दिया था | इसी के मद्देनज़र प्रेस कौंसिल के तत्कालीन अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने अपनी त्वरित टिप्पणी में भारतीय पत्रकारिता ने गिरते स्तर पर चिंता प्रकट करते हुए कहा था कि हमारे यह इस क्षेत्र में बड़ी गंदगी है , जिसकी सफ़ाई होनी चाहिए | उनका ठीक ही कहना है कि वे प्रेस की आज़ादी के पक्ष में ज़रूर हैं , लेकिन प्रेस की अपनी कुछ जिम्मेदारियां भी होनी चाहिए | जस्टिस काटजू का यह भी खयाल है कि "उन्हें [ पत्रकारों को ] पूरी आज़ादी नहीं देनी चाहिए | हमने प्रेस की आज़ादी के लिए खुद आवाज़ उठायी है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं|" ज़ी न्यूज़ के सम्पादक सुधीर चौधरी और ज़ी बिजनेस के सम्पादक समीर आहलूवालिया पर आरोप लगे कि उन्होंने कांग्रेस सांसद और उद्योगपति नवीन जिंदल के ग्रुप से इस आधार पर 100 करोड़ रुपए मांगे थे कि वे नवीन ज़िंदल की कम्पनी और कोयला घोटाले को जोड़ कर कोई रिपोर्ट नहीं करेंगे | दूसरी तरफ वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव का कहना है कि हम पत्रकारिता के स्वर्णयुग में नहीं रह रहे हैं | मीडिया संस्थान को चलाने के लिए एक बड़ी पूंजी की जरुरत है और जो पूँजी लगाएगा उसे लाभ चाहिए , इसलिए पत्रकारीय अपराध नहीं रुक रहा | सेल्फ रेगुलेशन भी ऐसा करने में असफल रहा है | बीईए और एनबीए जैसे संस्थानों को अपनी सदस्यता के मापदंड़ों पर विचार करना चाहिए | इसके अलावा विज्ञापन की दरों को तय करना होगा और उसे रेगुलेट करने की जरुरत है | जस्टिस काटजू और राहुल देव की बात ऐसी है , जिस पर भारतीय मीडिया को चितन - मनन ही नहीं , बल्कि अमली तौर पर इसे पाक - साफ़ रखने की ठोस पहल एवं कोशिश करनी चाहिए थी , जो अब तक नहीं हो सकी . काफ़ी लम्बे समय से भारतीय मीडिया की गैर ज़िम्मेदाराना हरकतें सामने आ रही हैं , जो लोकतंत्र और उसकी चतुर्थ सत्ता प्रेमियों को चिंता में डालती रही है | एडमंड बर्क ने इसे चतुर्थ सत्ता तो क़रार दिया ही था , साथ ही इसकी ज़िम्मेदारियाँ भी गिनाईं थीं , लेकिन अफ़सोस पत्रकारिता से जुड़े लोगों को ' चतुर्थ सत्ता ' ही याद रही | वे अपनी ज़िम्मेदारियाँ भूले ही नहीं , निरंकुश हो गये , जिसके लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होती |
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