लघुकथा / अंतर

लघुकथा /  अंतर 

बस खचाखच भरी थी | कन्डक्टर महोदय मनमाने ढंग से किराया वसूलते जा रहे थे , किसी से कम , किसी से ज्यादा | ऐसा लगता था कि उन पर कानून का कोई अंकुश नहीं है | उसी बस में यात्रा कर  रही बुढिया [ जिसकी उम्र लगभग 65 वर्ष रही होगी ] से कन्डक्टर महोदय ने शंकरनगर तक का तीन रुपया वसूला  , जबकि वहां तक का किराया मात्र सवा दो रुपया था | किराया लेने के पश्चात बुढिया पर रोब जमाते हुए बोला -
' तुम्हारा किराया कम है , तुमको हम काशीपुर ही उतार देंगे | '
यह सुनकर बुढिया के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आयीं | गिड़गिडाते हुए बोली -
'' बाबू जी , मेरे पास तीन ही रूपये थे | मुझे शंकरनगर पहुंचा देना ..... बाबू जी .....  नहीं तो ....? '' उसकी जबान अटक गयी |
मैं सोच रहा था कि दुनिया में कितने निर्दयी लोग होते हैं | मेरे हृदय में कन्डक्टर के प्रति घृणा की लहर व्याप्त हो गयी | मैं अपनी सीट पर से उठकर बुढिया के पास गया और आश्वासन दिया कि ' तुम्हारा बाकी पैसा अभी वापस करा देंगे और शंकरनगर तक पहुंचा देंगे | '
इसी बात को लेकर मेरे और कन्डक्टर के बीच झड़प हो गयी | कन्डक्टर महोदय तेज आवाज़ में बोले -
' यह बुढिया तुम्हारी कौन है , जिसके प्रति तुम इतनी सहानुभूति दिखा रहे हो ? ' मैंने कहा , ' यह तुम्हारी माँ है |' इतना सुनकर कन्डक्टर का हृदय पिघल गया | उसकी आँखों में आंसू छलछला आये | उसने बुढिया को सारा रुपया वापस कर दिया और शंकरनगर तक पहुंचा दिया |
- राम पाल श्रीवास्तव  [ ' चेतना ' द्वैमासिक , सितंबर - अक्तूबर 1982 , नरकटिया कोठी , मधुबनी , पूर्णिया , बिहार  , पृष्ठ 5 ] 
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